Essay on Gender Inequality in Hindi
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Essay # 1. जेण्डर का अर्थ:
स्त्री एवं पुरुष में यदि अन्तर देखें तो कुछ वे अंतर दिखायी देते हैं जो शारीरिक होते हैं, जिन्हें हम प्राकृतिक अन्तर कहते हैं । इसे लिंग भेद भी कहा जा सकता है किन्तु अधिक अन्तर वे हैं, जिन्हें समाज ने बनाया है ।
चूँकि इस अंतर को समाज ने बनाया है, अत: ये अंतर वर्ग, स्थान व काल के अनुसार बदलते रहते हैं । इस सामाजिक अंतर को बदलने वाली संरचना को जेण्डर कहा जाता है । इसे हम ‘सामाजिक लिंग’ कह सकते हैं ।
जेण्डर शब्द महिला और पुरुषों की शारीरिक विशेषताओं को समाज द्वारा दी गई पहचान से अलग करके बताता है । जेण्डर समाज द्वारा रचित एक आभास है जिससे महिला-पुरुष के सामाजिक अंतर को उजागर किया जाता है । अक्सर भ्रांतियों के कारण जेण्डर शब्द को महिला से जोड़ दिया जाता है ।
जैसे- शिक्षा से सम्बन्धित एक कार्यशाला में चर्चा चल रही थी कि गांव से पाठशाला दूर है तथा बीच में गन्ने के खेत एवं थोड़ा सा जंगल है तो शिक्षा की व्यवस्था कैसी होगी ? तब एक प्रतिभागी ने उत्तर दिया कि बालकों को तो कोई समस्या नहीं होगी किन्तु बालिकाओं को समस्या आयेगी । वह इतनी दूर कैसे जायेगी, उसकी सुरक्षा से सम्बन्धित समस्याएं आयेंगी ।
अत: जेण्डर शब्द के अन्तर्गत निम्न बातों का समावेश होता है :
1. यह महिला एवं पुरुष के बीच समाज में मान्य भूमिका एवं सम्बन्धों की जानकारी देता है ।
2. यह सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक तथ्यों तथा सम्बन्धों की व्यवस्था की ओर इंगित करता है ।
ADVERTISEMENTS:
3. यह महिला एवं पुरुष की शारीरिक रचना से अलग हटकर दोनों को ही समाज की एक इकाई के रूप में देखता है तथा दोनों को ही बराबर का महत्व देता है तथा यह मानता है कि दोनों में ही बराबर की क्षमता है ।
4. यह एक अस्थाई सीखा हुआ व्यवहार है जो कि समय, समाज व स्थान के साथ-साथ बदलता रहता है ।
5. जेण्डर सम्बन्ध अलग-अलग समाज एवं समुदाय में अलग-अलग हो सकते हैं, तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भों को समझ कर अभिव्यक्त किये जाते हैं ।
उदाहरण स्वरूप मानव जीवन में नीचे दर्शाये गए पहलुओं को जेण्डर परिभाषित करता है:
१. वेशभूषा एवं शारीरिक गठन :
i. स्त्री एवं पुरुषों की वेशभूषा समाज एवं संस्कृति तय करती है जैसे घाघरा, सलवार सूट, धोती-कुर्ता, पैंट शर्ट, जनेऊ, मंगल सूत्र का प्रयोग आदि ।
ii. स्त्री एवं पुरुष के शरीर का गठन कैसा होगा । अक्सर यह भी संस्कृति एवं समाज तय करता है, जैसे- छोटे बाल, बड़े बाल, मोटा, पतला, गोरा, काला आदि होना ।
२. व्यवहार:
i. बालक-बालिका, स्त्री पुरुष के बोलने का ढंग, उठना बैठना, हंसना बोलना एवं चलना आदि समाज एवं संस्कृति के मानदण्डों के आधार पर तय होता है ।
ii. बड़ों का आदर करना, बड़ों के समक्ष बोलना इत्यादि समाज द्वारा निर्धारित मानदण्डों के अनुसार ही तय होता है ।
i. स्त्री एवं पुरुषों की अलग-अलग भूमिकाएं हैं, जैसे- माँ, पिता, गृहणी आदि ।
४. कर्तव्य एवं अधिकार:
एक लड़की तथा एक लड़के के विकास के साथ-साथ उसके कर्तव्य एवं अधिकारों में परिवर्तन होता रहता है एवं यह सब कुछ तय होता है समाज एवं संस्कृति के मानदण्डों के आधार पर । उपरोक्त स्थितियों को देखने के साथ-साथ एक बात पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि जेण्डर क्या नहीं है ।
i. जेण्डर शब्द से केवल महिला ही प्रदर्शित नहीं होती है ।
ii. यह पुरुषों को शेष समाज से अलग नहीं देखता है ।
iii. जेण्डर का तात्पर्य सिर्फ नारीवाद नहीं है ।
iv. यह केवल महिलाओं की समस्या को नहीं देखता ।
v. इसके अन्तर्गत सिर्फ महिलाओं की बात नहीं होती ।
vi. यह लिंग का पर्यायवाची नहीं है इत्यादि ।
Essay # 2. जेण्डर सम्बन्ध विश्लेषण:
जेण्डर सम्बन्ध विश्लेषण एक व्यवस्थित दृष्टिकोण है, इसके जरिए पुरुष व महिलाओं की अलग-अलग भूमिकाओं के कारण, उन पर विकास के अलग-अलग पड़ने वाले प्रभावों एवं परिणामों का अन्दाजा लगाया जा सकता है और उन्हें समझा जा सकता है ।
जेण्डर भूमिकाओं के असर से श्रम का बँटवारा होता है तथा जेण्डर आधारित श्रम विभाजन के चलते वर्तमान सम्बन्ध यथास्थिति बने रहते हैं और संसाधन, लाभ तथा जानकारियों तक पहुँच व निर्णय प्रक्रिया की मौजूदा स्थिति मजबूत बनी रहती है ।
जेण्डर भूमिकाएँ जीवन के हर पक्ष में मिलती हैं इसलिए सार्थक विश्लेषण करने के लिए घर, बाहर तथा कार्यक्रमों के अलग-अलग अवयवों पर विशेष ध्यान दिए जाने वाले क्षेत्रों, जैसे- स्वास्थ्य, आर्थिक विकास, शिक्षा, मानवीय सहायता आदि की सीमाएं पार करते हुए जेण्डर हितों को परखना पड़ेगा । यद्यपि जेण्डर अंतर, जीवन के आरम्भ से ही व्यक्तिगत पहचान की परिभाषा तय करना शुरू कर देते हैं, इसलिए जेण्डर सम्बन्ध विश्लेषण को हर आयु पर लागू करना चाहिए और यह संगत भी है ।
पितृसत्ता :
पितृसत्ता का स्वरूप हर जगह एक जैसा नहीं होता । इतिहास के अलग-अलग कालखण्ड में अलग-अलग समुदाय, समाज तथा वर्गों में इसका स्वरूप भले ही भिन्न हो किन्तु छोटी-मोटी विशेषताएं वही रहती हैं तथा पुरुषों के नियंत्रण का स्वरूप भले ही अलग-अलग हो किन्तु उनका नियंत्रण एवं वर्चस्व तो रहता ही है ।
प्राचीन काल के इतिहास पर यदि एक नजर डालें तो पता चलता है कि जेण्डर भेदभाव की उत्पत्ति एक ऐतिहासिक समय से हुई । पुरातत्वकालीन मूर्तियों एवं प्राप्त चित्रों से पता चलता है कि महिलाओं की प्रजनन शक्ति का पूजन किया जाता है लेकिन किसी कारणवश यह श्रद्धा और भक्ति की भावना बदलकर दमन और शोषण बन गयी ।
इस बदलाव के पीछे संभवत: यह कारण था कि जब निजी सम्पत्ति की उत्पत्ति हुई तब महिला पर पुरुष की सत्ता बन गई । पुरुषों ने अपने ही वंश को सुनिश्चित करने के लिए ‘विवाह प्रथा’ को शुरू किया जिसके अन्तर्गत एक महिला केवल एक ही पुरुष के साथ सम्बन्ध रख सकती है, जिससे संतान के पिता का पता हो इससे पितृसत्ता की उत्पत्ति हुई । मानव जीवन के प्रारम्भ के इतिहास में ऐसा भी युग हुआ होगा जब वर्ग एवं लिंग के आधार पर कोई असमानता नहीं होगी ।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री ऐंजलस ने समाज के विकास को तीन कालखंडों में विभाजित किया है:
1. जंगली युग,
2. बर्बरता का युग,
3. सभ्यता का युग ।
1. जंगली युग :
मनुष्य जंगलों में लगभग जानवरों की तरह रहता था । शिकार करके खुराक इकट्ठा करना यही उसकी दिनचर्या थी, उस समय में विवाह प्रथा या फिर निजी सम्पत्ति नाम की कोई वस्तु नहीं हुआ करती थी तथा मानव का वंश माँ के नाम से चलता था । स्त्री या पुरुष आवश्यकता पड़ने पर अपनी इच्छा से यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे ।
2. बर्बरता युग :
i. इस युग में मानव का विकास हुआ तथा शिकार करके खुराक इकट्ठा करने की गतिविधियों के साथ-साथ कृषि एवं पशुपालन के कार्यों का भी विकास हुआ । पुरुष शिकार करने दूर-दूर तक जाते थे, उस समय बच्चों, पशुओं, कृषि तथा आवास की देखभाल की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती थी । इसी समय से लिंग पर आधारित श्रम विभाजन की शुरुआत हुई ।
ii. इस समय अंतराल में सत्ता औरतों के पास थी । वंश (कबीला या सगोत्री पर समुदाय की औरतों का नियंत्रण था ।
iii. पुरुषों ने जब से पशुपालन कार्य की शुरुआत की, तो उनको गर्भधारण की प्रक्रिया का महत्व समझ में आया, शिकार एवं शस्त्र विकसित किए गये, लोगों को जीतकर गुलाम बनाया गया । कबीलों ने ज्यादा से ज्यादा पशुओं एवं गुलामों (विशेष रूप से स्त्री गुलामों) पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया ।
iv. पुरुष ताकत के बल पर दूसरों पर सत्ता जमाने लगे तथा पशु एवं गुलामों के रूप में ज्यादा से ज्यादा सम्पत्ति इकट्ठी करने लगे । इन सबके कारण निजी सम्पत्ति अस्तित्व में आई ।
v. ज्यादा से ज्यादा सम्पत्ति अपनी ही संतान को मिले, ऐसी सोच का विकास हुआ तथा बच्चा पुरुष का अपना ही है, इसकी जानकारी के लिए यह जरूरी हुआ कि औरत किसी भी एक पुरुष के साथ ही शारीरिक सम्बन्ध रखे ।
vi. इस तरह के उत्तराधिकार पाने के लिए मातृत्व अधिकार को नकार दिया गया ।
vii. पिता के अधिकार को चिर स्थायी बनाने के लिए पुरुषों ने एक ही कबीले में रहकर महिलाओं की यौनिकता को सीमित करने के लिए एवं उनका सारा ध्यान एक ही पुरुष पर केन्द्रित करने के लिए उनके अन्दर एक विशेष मानसिकता पैदा की गई ।
यह सब कुछ धर्म, शिक्षा, संस्कार, गाथा-कविताओं आदि के सहारे किया गया जिससे कि महिलाएं धीरे-धीरे अपनी अधीनता को अपना गौरव मानने लगी । पति के लिए भूखे रहना, उसकी हर प्रकार से सेवा करना, उन्हीं के सुख की चिन्ता करना और अपने बारे में कभी नहीं सोचना, इसी को औरत का धर्म कहकर महिलाओं ने सब कुछ नकार दिया ।
इस प्रवृत्ति को धर्म ने और बढ़ावा दिया । संस्कृति तथा कला ने भी इसी से सम्बन्धित चित्र सामने रखे । घरेलू व औपचारिक शिक्षा ने यही सिखलाया । कानून ने भी इसे बनाये रखा और मीडिया ने भी इसी परिप्रेक्ष्य में बात की । परिणामस्वरूप महिला पर अधिकार या तो उसके पति का होगा या फिर उसके भाई, ससुर, पिता, जेठ या बड़े बेटे का । महिला के जीवन के सारे महत्वपूर्ण निर्णय इन्हीं पुरुषों के द्वारा ही लिए जाने लगे ।
3. सभ्यता युग:
धीरे-धीरे सामाजिक एवं आर्थिक रूप से महिलाएं पुरुषों पर निर्भर होती गई । वंशानुगत सम्पत्ति पर अधिकार बनाये रखने के लिए तथा वंश को चलाने वाले उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिए औरतों को घर की चारदीवारी में मर्यादित किया गया ।
साथ ही साथ एक पत्नी वाला परिवार ‘पुरुष प्रधान परिवार’ में परिवर्तित हो गया, जहाँ पर पत्नी के द्वारा घर पर किया जाने वाला श्रम, निजी सेवाओं, में बदल गया एवं पत्नी एक दासी बन गई । इन सबके परिणामस्वरूप जेण्डर भेदभाव सबके अंतर गहराई से फैला हुआ है चाहे वे महिला हों या पुरुष । इसकी जड़ इतने अतीत में है कि इसे मिटाने का काम एक दिन में नहीं हो सकता ।
जेण्डर भेदभाव के कुछ अपवाद भी हैं । कही-कहीं समाज में महिलाओं को अलग दर्जा प्राप्त है, जैसे केरल और मेघालय में देखने को मिलता है । इन प्रदेशों में कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनके समाज में पुरुष शादी के बाद महिला के घर आकर रहने लगते है ।
इन जातियों में महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी है क्योंकि इन्हें अपना घर नहीं छोड़ना पड़ता है । लेकिन सारे अधिकार पति के हाथ में ही रहते हैं । मातृसत्तात्मक समाज में हलांकि सम्पत्ति लड़की को मिलती है परन्तु उस पर नियंत्रण भाईयों या मामाओं का होता है ।
बेटियाँ सम्पत्ति की मालिक न होकर संरक्षक होती है । उन्हें वह पूर्ण आजादी नहीं है जो अन्य समाजों में पुरुषों को मिलती है । मातृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के मुखिया होने के बावजूद उन्हें अधिकार काफी कम है ।
एक पूर्णतया मातृसत्तात्मक समाज उस समाज को कहते हैं जहाँ महिलाओं को पूर्ण अधिकार प्राप्त हों और उनके हाथ में सत्ता हो, धार्मिक संस्थाएं, आर्थिक व्यवस्था, उत्पादन, व्यापार सभी कुछ पर उनका नियंत्रण भी रहे ।
महिलाओं का उत्थान एवं पतन:
चरण १- आदिम समाज :
a. अपेक्षाकृत अधिक जेण्डर समानता,
b. मातृ वंशात्मकता,
c. प्रजनन में पुरुष भूमिका की जानकारी न होना,
d. सार्वभौम रूप से माता की पूजा,
e. स्त्री की शारीरिक प्रक्रियाओं का आदर, अशुद्ध मानकर घृणा नहीं ।
चरण २- एक ही जगह बसना:
a. जनसंख्या वृद्धि,
b. आदिम खेती-बाड़ी और पशु पालन की बेहतर तकनीक,
c. प्रजनन में पुरुष भूमिका की समझ ।
d. जमीन व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के लिए होड़,
e. युद्ध में पुरुषों को भेजना,
f. व्यक्तिगत सम्पत्ति का आरम्भ ।
चरण ३- पितृवंशात्मकता / पितृसत्तात्मकता:
बच्चें जैविकीय रूप से उनके हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए पुरुषों ने महिलाओं की यौनिकता और प्रजनन पर नियंत्रण किया ।
a. सत्ता और पवित्रता की विचारधारा ।
b. आने-जाने पर बन्धन / अलग-अलग रहना ।
c. आर्थिक स्वतंत्रता से दूर रखना ।
Essay # 3. जेण्डर का उदय:
समाज में जेण्डर को बनाने वाले दो अलग-अलग आयाम हैं:
i. मानसिकता एवं विचारधारा,
ii. शक्ति का विभाजन/बँटवारा ।
i. मानसिकता एवं विचारधारा:
मानव समाज में कभी-कभी कहीं-कहीं किसी सामाजिक वर्ग की एक विशेष मानसिकता होती है । जो यह तय करती है कि महिलाओं और पुरुषों में क्या सामाजिक अंतर होने चाहिए । यह मानसिकता कई कारणों से प्रभावित होकर बनती हैं, जैसे- धर्म, मानव व्यवहार, शिक्षा व्यवस्था, कानून, भौगोलिक क्षेत्रफल, मीडिया, बाजार, परिस्थितियों इत्यादि ।
इस तरह की मानसिकता पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती है । यह बचपन से ही डाले गए संस्कारों द्वारा सीखी जाती है तो कुछ सामाजिक परम्पराओं के रूप में हमेशा उसी विचारधारा को याद दिलाती हैं । इस तरह की विचारधारा के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही यह माना जाता है कि महिला-पुरुष से कमजोर होती है, उसकी क्षमताओं में कमी होती है और उसका जीवन तभी सार्थक होगा जब वह किसी पुरुष की सेवा करेंगी ।
इस तरह की मानसिकता एवं विचारधारा के आधार पर महिलाओं एवं पुरुषों की समाज में अलग-अलग भूमिकाएँ निर्धारित हो जाती हैं एवं दोनों के लिए ही अलग-अलग व्यवहार एवं बोलचाल का तरीका भी तय होता है ।
उदाहरणार्थ :
1. पुरुष घर के बाहर के काम करेगा ।
2. महिला घर में रहकर काम करेगी ।
3. पति चाय की दुकान पर बैठ सकता है या मित्रों के घर जाकर देर से आ सकता है ।
4. पत्नी किसी के साथ बैठकर बातचीत करती हुई या जोर से हँसती हुई नहीं दिखनी चाहिए । यदि इस तरह की पूर्व निर्धारित भूमिकाओं / व्यवहार को बदला जाता है तो यह समुदाय में चर्चा का विषय बन जाता है ।
उदाहरणस्वरूप :
a. कोई महिला कहे कि वह बच्चों की देखभाल नहीं करना चाहती ।
b. पुरुषों द्वारा घर का काम करना या फिर किसी बात पर आँसू बहाना आदि ।
ii. शक्ति का विभाजन/बँटवारा:
महिलाओं एवं पुरुषों के बीच अंतर को बनाये रखने के लिए शक्ति या ताकत के बहुत सारे साधन हैं, जैसे- धनी / सम्पत्ति, जानकारी / शिक्षा, कार्यक्षमता / कार्यशक्ति आदि । प्रत्येक साधन के स्वामित्व से ताकत मिलती है तो यह ताकत अन्य साधनों तक पहुँच बढ़ाती है । इनमें से अधिकांश संसाधनों पर पुरुषों का नियंत्रण है तथा सत्ता मुख्य रूप से पुरुषों के ही हाथ में होती है ।
उदाहरणार्थ- पहाड़ों पर महिलाएं अधिक काम का बोझ सम्भालती हैं, लेकिन उनके हाथ में पैसे नहीं रहते क्योंकि बाजार पुरुष के नियंत्रण में रहता है, जैसे कि खेतों में अनाज का उत्पादन महिलाओं के द्वारा किया जाता है किन्तु उसके बेचने का काम परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं ।
घर की आय, पुरुषों के नाम होती है । महिला को घर के काम-काज को सम्भालना है, अत: उसे अधिक पढ़ाई की आवश्यकता नहीं है । वह अखबार अथवा मैगजीन पढ़ती हुई या खाली बैठकर रेडियो सुनती हुई नहीं दिखनी चाहिए ।
अपना ज्ञान बढ़ाने हेतु वह स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं जा सकती क्योंकि उसके समय एवं दिनचर्या पर पुरुषों का ही नियंत्रण रहता है । उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक अंतर बना ही रहता है ।
जेण्डर को कौन बनाये रखता है ?
यह एक तरह से उलझाने वाला प्रश्न है क्योंकि इसके साथ ही कुछ अन्य प्रश्न भी उठ खड़े होते हैं ।
1. क्या महिलाएं ही इस अन्याय को बनाए रखती हैं ?
2. क्या महिला ही महिला का शोषण करती हैं ?
3. क्या हर चीज के लिए पुरुष ही जिम्मेदार है ?
4. इस जेण्डर भेदभाव को आज तक कम क्यों नहीं किया जा सका ?
5. महिलाओं ने इसे खत्म क्यों नहीं किया ?
इस तरह क प्रश्नों के बहुत सारे उत्तर भी समाज से ही निकल कर आते हैं , जैसे:
i. महिलाओं में आत्मविश्वास नहीं है, भय है ।
ii. महिलाओं में असफलता का डर है, लोकलज्जा है ।
iii. महिलाओं में एकता नहीं है, संघर्ष की क्षमता नहीं है ।
iv. महिलाओं को अन्याय का पूरा एहसास नहीं है ।
वैसे देखा जाए तो समाज के दबे वर्ग में दो तरह की विशेषताएं पाई जाती हैं, चाहे वो महिला हो या दलित । उस वर्ग के सदस्यों पर कोई प्रत्यक्ष रूप से दबाव नहीं दिखता, लेकिन उसके मन में समाज के नियम तोड़ने का दुस्साहस करने की हिम्मत जुटाना उनकी सोच के बाहर है ।
यहाँ तक कि वे अन्याय के बारे में सोचते तक नहीं है और उसे सहते रहना जीवन की नियति मानते हैं । उस वर्ग के लोग स्वयं ही अपनी अगली पीढ़ी को दबे रहना सिखाते हैं । शोषण की परम्परा को अनायास वे स्वयं ही आगे बढ़ाते हैं ।
वे अपनी अगली पीढ़ी में इस प्रकार का अहसास डालते हैं कि उनके मन में कभी भी विरोध की भावना न आये । जैसे यदि कोई दलित बंधुवा मजदूर है तो वह अपने बेटे और पत्नी को भी बंधुवा मजदूर बना देता है । कर्ज के बहाने यह चलन पीढ़ी दर पीढ़ी उस परिवार में चलता रहता है ।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि दबे वर्गों में मानसिकता ऐसी बनी रहती है कि वे अपनी वर्तमान स्थिति में परिवर्तन के बारे में सोच ही नहीं पाते । इन मानसिकता को बनाए रखने में घरेलू अनौपचारिक शिक्षा और घर का वातावरण मुख्य भूमिका निभाते हैं ।
दूसरी ओर पुरुष का पक्ष है । वे जेण्डर भेदभाव को क्यों नहीं तोड़ते ? इसके लिए हमें यह याद रखना होगा कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है । यहाँ भेदभाव निष्पक्ष नहीं है । इससे सत्ता का बँटवारा होता है और ज्यादा ताकत या शक्ति पुरुषों को मिलती है ।
धन, सम्पत्ति, संसाधन, कार्यशक्ति आदि पर नियंत्रण अधिकतर पुरुषों का ही है, अत: उनको इसका पूरा-पूरा फायदा मिलता है । जिस व्यवस्था से उनका स्वार्थ जुड़ा, वे उसे भला क्यों बदलेंगे ? अत: इसके लिए हमें स्वयं ही प्रयास करने होंगे ।
Essay # 4. जेण्डर भेदभाव :
महत्व इस बात का नहीं है कि लोग जेण्डर भेदभाव क्यों करते हैं । महत्व इस बात का है कि वे कौन से कारण (कारक) हैं जो जेण्डर भेदभाव पैदा करते है, इनके आधार पर उनका प्रभाव कम करना या उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए । भेदभाव के लिए प्रयोग होने वाले कुछ घटक अथवा कारक निम्न प्रकार से है-लिंग, धर्म एवं जाति, वर्ग एवं समुदाय, धन/सम्पत्ति, कद अथवा डीलडौल, नस्ल, राजनैतिक विश्वास/जुड़ाव, रंग आदि ।
जेण्डर भेदभाव कम करने हेतु सामान्य रूप से समुदाय स्तर पर जो उपाय किये जा सकते हैं , उनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है:
१. जानबूझ कर किया जाने बाला भेदभाव:
पक्षपात एवं पूर्वाग्रहवश लोगों द्वारा जानबूझ कर किये जाने वाले कार्य जैसे- नीति विशेषज्ञों, अध्यापकों, विकास कार्यकर्त्ताओं, मालिकों आदि के द्वारा लोगों को शिक्षित कर उनके मन मस्तिष्क को बदलना चाहिए ।
२. असमान व्यवहार:
यह समाज में आमतौर पर देखने को मिलता है, जैसे- अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, बूढ़े-जवान, स्त्री-पुरुष, छुआछूत आदि के साथ विभिन्न समाज एवं वर्ग के लोगों का अलग-अलग व्यवहार होता है । इसे दूर करना चाहिए और सभी समूहों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए ।
३. व्यवस्थित एवं संस्थागत भेदभाव:
(क) ऐसे रीति-रिवाज जिनका महिलाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । हालांकि ये समुदाय आधारित रीति-रिवाज तथा संगठित नीति निर्देश किसी पूर्वाग्रह के साथ या नुकसान पहुँचाने के इरादे से नहीं बनाये गये थे ।
(ख) व्यवस्थित भेदभाव को संस्थागत भेदभाव भी कहा जाता है । संस्थाओं एवं संगठनों की प्रक्रियाओं और रीतियों के भीतर सामाजिक, सांस्कृतिक व भौतिक मानक गहरे होते हैं । लोग इस तरह के भेदभाव को अनुभव तो कर सकते हैं लेकिन इस पर उँगली नहीं उठा सकते । यह ज्यादातर अनचाहा होता है ।
४. अन्तर्संस्थात्मक भेदभाव:
किसी एक क्षेत्र में जानबूझ कर किया गया भेदभाव दूसरे क्षेत्र में अनजाने भेदभाव के रूप में परिणत हो सकता है । मिसाल के लिए महिलाओं को शिक्षा व प्रशिक्षण के अवसर न मिलने पर वे तब नुकसान में रहती है चूँकि पदोन्नति या राजगार के लिए आवश्यक शिक्षण स्तर को आधार बनाया जाता है ।
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[ 600 शब्द ] Essay on Gender Discrimination in Hindi - लैंगिक भेदभाव पर निबंध
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Gender Discrimination par nibandh Hindi mein
भूमिका: आज हमारे देश में लैंगिक भेदभाव एक गंभीर समस्या है। लोग आज भी लड़का और लड़की में भेदभाव करते हैं। लोगों का विश्वास है कि अगर लड़का हुआ तो उनके परिवार के लिए काफी अच्छा है। लड़के बड़े होकर मां-बाप का सहारा बनेंगे और इसके अलावा लड़के की शादी जब वह करेंगे तो भारी भरकम उन्हें दहेज भी प्राप्त होगा। इसलिए लोग लड़कों को बहुत ज्यादा ही प्राथमिकता देते हैं लड़कियों के मुकाबले।
लेकिन लैंगिक भेदभाव की समस्या को समाप्त करना बहुत ज्यादा आवश्यक है। क्योंकि अगर ऐसा रहा तो 1 दिन देश और दुनिया दोनों जगह लड़कियों की संख्या में कमी हो जाएगी और ऐसा हुआ तो सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा।
लैंगिक भेदभाव का अर्थ क्या होता है: लैंगिक भेदभाव का मतलब होता है समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव उनके साथ दुर्व्यवहार करना। इसके अलावा जो भी अधिकार पुरुषों को प्राप्त है उनसे महिलाओं को वंचित करना विशेष तौर पर भारत में।
लैंगिक भेदभाव की विचारधारा तेजी के साथ प्रसारित प्रसारित हो रही है। जिसके कारण देश में कन्या भ्रूण हत्या जैसी गंभीर समस्या भी उत्पन्न हो रही है। लोग लड़कों की चाह में लड़कियों को जन्म से पहले ही मार दे रहे हैं। भारत में सरकार ने इसके लिए कानून में बनाया है की जन्म से पहले बच्चे का लिंग का आप परीक्षण नहीं कर सकते हैं। लेकिन फिर भी कई जगहों पर चोरी छुपे लोग जन्म से पहले ही लिंग का परीक्षण कर लेते हैं। और जब उनको मालूम चलता है कि लड़की है तो उसे गर्भ में ही मार देते हैं।
लैंगिक भेदभाव के कारण क्या है: लैंगिक भेदभाव जैसी समस्या उत्पन्न होने के पीछे सबसे बड़ी वजह है कि लोगों का विश्वास है की अगर लड़का पैदा होता है तो बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगा इसके अलावा लड़का पैसे कमाकर घर की आर्थिक स्थिति को संभाल लेगा और वंश को आगे बढ़ाएगा। इसलिए लोग लड़कों को लड़कियों के मुकाबले ज्यादा तरजीह देते हैं। इसके अलावा शादी होने पर वह अच्छा खासा पैसा दहेज के रूप में प्राप्त कर सकते हैं।
सबसे बड़ी बातें की लड़कियों के साथ भेदभाव प्राचीन काल से ही चला रहा है। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि लड़कियों का प्रमुख कर्तव्य घर संभालना है। उनके लिए बाहर जाना वर्जित था। इसके कारण लड़कियों को प्राचीन काल में शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती थी। जिसके फल स्वरुप लड़कियों के स्थिति समाज में कभी भी मजबूत नहीं हो पाई।
- समाज में जागरूकता अभियान चलाना होगा ताकि लोगों को समझ में आ सके कि लड़कियां लड़कों से किसी भी मामले में कम नहीं है।
- लड़कियों के शक्तिकरण करने के लिए सरकार को कई प्रकार के जन हितकारी योजना का संचालन करना चाहिए ताकि लड़कियां सशक्त और मजबूत बन सके।
- सरकार के द्वारा दहेज प्रथा, बाल विवाह प्रथा, शारीरिक और मानसिक शोषण से संबंधित जितने प्रकार की कुपरंपरा और प्रथाएं हैं उनके लिए कठोर से कठोर नियम और कानून बनाएं चाहिए ताकि समाज में लड़कियों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त किया जा सके।
- महिलाओं के साथ हो रहे घरेलू हिंसा को रोकने के लिए घरेलू हिंसा से संबंधित और भी कठोर कानून सरकार को बनाने चाहिए ताकि महिलाओं के साथ हो रहे घरेलू हिंसा को रोका जा सके।
- समाज के प्रभावशाली पुरुषों को महिलाओं का सम्मान करना चाहिए और उन्हें बढ़-चढ़कर महिलाओं के हित के लिए भी काम करना चाहिए ताकि समाज में महिलाओं को सशक्त और मजबूत करने में मदद मिले।
उपसंहार : भारत जैसे विशाल देश में लड़कियों के साथ भेदभाव की समस्या अधिक है। लेकिन सरकार और कई सामाजिक संस्थाओं के द्वारा दिन रात काम किया जा रहा है और भारत में इस समस्या को काफी हद तक समाप्त भी किया गया है। लेकिन अभी भी इस क्षेत्र में और भी ज्यादा प्रयास की जरूरत है ताकि भारत में सेक्सुअल भेदभाव जैसी समस्या को जड़ से समाप्त किया जा सके।

F.A.Q ( अधिकतर पूछे जाने वाले सवाल )
- लैंगिक भेदभाव किसे कहते है ?
- लैंगिक भेदभाव को अंग्रेजी में क्या कहते है ?
- लैंगिक भेदभाव के कारण कौनसी सामाजिक कठिनाई होती है ?
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लिंग भेदभाव पर निबंध (Essay on Gender Discrimination in Hindi)
लिंग भेदभाव एक सामाजिक मुद्दा है जो हमारी व्यवस्था में युगों से मौजूद है। यह विशेष रूप से समाज में विभिन्न लिंगों के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार को संदर्भित करता है।
प्रत्येक व्यक्ति को समाज में उनकी प्रजनन और जैविक भूमिकाओं के अनुसार आंका जाता है और इस प्रकार उन्हें एक दूसरे से नीचा माना जाता है।
महिलाएं लैंगिक असमानता की अधिक शिकार हैं क्योंकि उन्हें इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों की तुलना में निम्न श्रेणी का माना जाता है।
लिंग भेदभाव
लिंग भेदभाव ने महिलाओं के लिए सबसे खराब परिदृश्य विकसित किया है क्योंकि वे विभिन्न कठिनाइयों से पीड़ित हैं और अपने दैनिक जीवन में अप्रिय परिस्थितियों में आते हैं। इसने अंततः उनके जीवन को दयनीय बना दिया है क्योंकि वे अपने घरों और देश में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ नहीं रह सकते हैं।
जीवन के विभिन्न पहलुओं में लैंगिक असमानता देखी जा सकती है जैसे कार्यस्थलों पर भेदभाव तब प्रकट किया जा सकता है जब महिलाओं को कंपनी में समान पदनाम वाले पुरुषों की तुलना में बहुत कम वेतन दिया जाता है।
इसके अलावा, अतीत में, महिलाओं को स्कूलों में जाने की अनुमति नहीं थी और पुरुषों को अधिक विशेषाधिकार और अच्छे स्कूल में भाग लेने की संभावना होती है।
लैंगिक भेदभाव न केवल महिलाओं द्वारा सामना किया जाता है, बल्कि समलैंगिक भी उन्हीं मुद्दों से पीड़ित होते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों द्वारा ग्रिंगोस माना जाता है और उनकी अलग जीवन शैली और जरूरतों के कारण समाज में उनका अपमान किया जाता है।
एशियाई देशों में लिंग असमानता अधिक देखी जा सकती है जहां इसे एक परंपरा माना जाता है। माना जाता है कि पुरुषों को अपने पूर्वजों को जारी रखने की शक्ति है, जबकि महिलाओं को “विदेशी धन” या तथाकथित “पराया धन” माना जाता है और उन्हें कभी भी पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है। इसलिए, महिलाओं ने धीरे-धीरे समाज में अपनी भूमिका खो दी है और इसलिए वे अपने जीवन के सभी पहलुओं में असमानता से पीड़ित हैं।
इसलिए, लिंग भेदभाव दुनिया भर में एक बड़ी समस्या है। सरकार और नारी-शक्ति केंद्रों द्वारा किए गए इतने प्रयासों के बाद भी, यह अभी भी हमारे समाज की जड़ों में विद्यमान है। ऐसे कई कारण हैं जो लैंगिक भेदभाव को जन्म देते हैं, जिन्हें समाज से आसानी से बाहर नहीं उठाया जा सकता है। फिर भी, हम अभी भी लोगों को शिक्षित करने और लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए प्रयास कर सकते हैं और सभी लिंगों को उनके सभी मौलिक अधिकारों का आनंद लेने में मदद कर सकते हैं ताकि वे समाज में उचित उपचार प्राप्त कर सकें।
लैंगिक असमानता पर निबंध। Essay On Gender Inequality In Hindi
लैंगिक असमानता पर निबंध। Essay On Gender Inequality In Hindi : नमस्कार साथियों आपका स्वागत हैं, आज का लेख लिंग असमानता gender Equality & inequality और लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) के विषय पर दिया गया हैं. लैंगिक समानता और असमानता क्या है इसके कारण परिभाषा समाज में प्रभाव शिक्षा में दुष्प्रभाव आदि बिन्दुओं पर यह लेख दिया गया हैं.
लैंगिक असमानता पर निबंध Essay On Gender Inequality In Hindi
वर्तमान में भारत की तरफ पूरी दुनिया नजर गाड़ी हुई है और शायद यकीनन हर भारतवासी को अपने भारतीय होने पर गर्व है लेकिन 21वीं सदी के भारत में भी कुछ ऐसे चिंताजनक विषय है जो समय के साथ हमें और भी गहराई से विचार करने पर मजबूर करते हैं। समाज महिला और पुरुष दोनों से बनता है।
अगर हमारे एक पैर में चोट लग जाती है तो हम ठीक से चल नहीं पाते। इसी तरह अगर समाज में किसी एक वर्ग की स्थिति चिंताजनक है तो वह समाज न आदर्शवादी समाज बन पाता है और ना अपने आपको तरक्की के रास्ते पर ले जा सकता है। क्योंकि समाज के संपूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति की हिस्सेदारी महत्वपूर्ण होती है अगर महिलाओं की हिस्सेदारी महत्वपूर्ण ना समझी जाए तो समाज अपने आप में आधा रह जाएगा जिससे उसका सतत विकास संभव नहीं होगा।
भारत जैसे विशाल पारंपरिक, लोकतांत्रिक और एक आदर्शवादी देश में लैंगिक असमानता कहे तो एक कलंक के समान है। महर्षि दयानंद सरस्वती, राम मोहन रॉय, महात्मा गांधी, भीमराव अंबेडकर जैसे अनेकों महापुरुषों ने समाज में महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए प्रयास किए और कुछ हद तक सफल भी हुए।
परंतु लैंगिक असमानता जैसी कुरीति को समाज से मिटा देना इतना आसान नहीं है। जब तक हर भारतीय अपनी व्यवहारिक जिम्मेदारी समझते हुए अपने व्यवहार और परंपराओं में परिवर्तन नहीं करेंगे तब तक ऐसी कुरीति को झेलना ही पड़ेगा। क्योंकि बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए समय-समय पर हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की जरूरत होती है।
यानी सदियों-सदियों तक प्रयास करके भी हम आज तक लैंगिक असमानता को पूर्णतया खत्म नहीं कर सके हैं। हर रोज ऐसी घटनाएं देखने को सुनने को मिलती है जो लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने वाली होती है। समाज में आपसी कपट, राजनीति की लालसा, नेतृत्व की भावना जैसे अवगुण समाज के पतन का कारण बनते हैं।
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विश्व बैंक समूह की एक आर्थिक रिपोर्ट यह बताती है कि लैंगिक असमानता से विश्व भर की अर्थव्यवस्था में करीब 160 खराब डॉलर का नुकसान हुआ है। आर्थिक आंकड़े के नुकसान का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है जिसकी वजह से दुनिया की अर्थव्यवस्था कितनी पीछे चल रही है क्योंकि संपूर्ण समाज का योगदान है समाज के विकास का आधार होता है
दुनिया भर में महिलाओं पर बढ़ते अपराध यौन उत्पीड़न सामाजिक एवं आर्थिक शोषण जैसी घटनाएं भी लैंगिक असमानता को बढ़ावा दे रही है। लैंगिक समानता कब से है, इसके कारण, इसके प्रभाव और आने वाले समय में इसकी स्थिति को लेकर हम इस आलेख में चर्चा करेंगे।
लैंगिक समानता का शाब्दिक अर्थ (Meaning of gender equality)
लैंगिक समानता का अर्थ है समाज में लैंगिक आधार पर भेदभाव यानी महिलाओं के साथ भेदभाव। जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तौर पर समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कितनी प्राथमिकता है। विभिन्न संस्थानों के द्वारा प्रकाशित होने वाले साल दर साल आंकड़े लैंगिक असमानता को एक सामाजिक चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए मजबूर करते हैं।
लैंगिक असमानता जैसी एक विशाल चुनौती के लिए कोई एक कारक जिम्मेदार नहीं है बल्कि हमारे अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग रीति रिवाज अर्थात पारिवारिक एवं धार्मिक मान्यताएं सबसे बड़ा कारण हैै। भारत के देश के विभिन्न समुदायों में लैंगिक असमानता को बढ़ावा देने वाली कई ऐसी प्रथाएं थी जिनका किसी समाज विशेष में पूर्णतया चलन था और वह समाज के प्रत्येक नागरिक को प्रभावित करती थी।
इसके अलावा कुछ ऐसी कुरीतियां भी समाज में थी जिनकी वजह से महिलाओं को अपना जीवन जीने स्वतंत्रता भी नहीं थीी। (सती प्रथा – विधवा महिला को अपने पति की चिता में जीवित आहुति देनी पड़ती थी।, जोहर- यह प्रथा राजपूत समाज में थी जिसमें हारे हुए राजपूत राजा की पत्नी विरोधियों के शोषण और उत्पीड़न से बचने के लिए अपनी इच्छा से आत्महत्या कर लेते थी) जिनकी वजह से समाज में महिलाओं का शोषण होता रहा।
लैंगिक असमानता के कारण (Due to gender inequality)
लैंगिक असमानता का सबसे प्रमुख कारण है समाज का पितृसत्तात्मक होना और महिलाओं को विकास के समान अवसर उपलब्ध ना होना। जहां पुरुष वर्ग समाज का स्वामी समझा जाता है और महिलाएं आजीवन उन्ही रीति-रिवाजों को निभाती चली जाती है जो पुरुषों के द्वारा निर्देशित हो।
जैसे मुस्लिम धर्म में पुरुष के द्वारा पत्नी को तीन बार तलाक कहने से धार्मिक व सामाजिक रूप से दोनों एक दूसरे के पति पत्नी नहीं रह जाते। परंतु संवैधानिक रूप से अब यह रिवाज अपराध एवं दंडनीय है।
संवैधानिक रूप से संपत्ति का व्यवहार होने के बावजूद भी व्यवहारिक रूप से भारतीय समाज में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं है। महिलाओं की आर्थिक स्थिति कमजोर होने का यह सबसे बड़ा कारण है। महिलाओं के द्वारा किए गए घरेलू अथवा अवैतनिक कार्यों को देश के आर्थिक विकास के आंकड़ों में शामिल नहीं किया जाता।
पंचायती राज व्यवस्था को छोड़ दिया जाए तो भारतीय संविधान में कहीं भी राजनीतिक स्तर पर महिलाओं को आरक्षण नहीं है। जिसकी वजह से समाज में महिलाओं की आवश्यकताएं एवं उनकी समस्याएं देश के राजनीतिक तौर पर प्रमुख संस्था तक नहीं पहुंच पाती। समाज की संकीर्ण मानसिकता, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि के कारण भारत में महिलाएं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों से अभी भी बहुत पीछे हैं।
वर्ल्ड इकोनामिक फोरम की रिपोर्ट के अनुसार यमन, पाकिस्तान और सीरिया शीर्ष तीन देश है जहां महिलाओं का शोषण अत्यधिक है या दूसरे शब्दों में कहे तो लैंगिक असमानता का ज्यादा प्रभाव इन 3 देशों में में देखने को मिलता है। आंकड़ों की बात की जाए तो 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लिंगानुपात 943 है अर्थात 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएंं।
अवसरों की उपलब्धता मेंअपवाद के तौर पर भारत एक 153 देशों में एकमात्र देश है जिसमें महिलाओं की आर्थिक क्षेत्र में भागीदारी राजनीतिक क्षेत्र की तुलना में कम है।
कहां कहां देखने को मिलती है लैंगिक असमानता
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में लैंगिक असमानता अखबार, टेलीविजन के माध्यम से या प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिलती है।
समाज की व्यवस्था का आधार नौकरशाही होती हैं।लेकिन लैंगिक असमानता यहां भी देखने को मिलती है। जैसे किसी बड़े निर्णय के निर्धारण में आमतौर पर पुरुषों की नीतियों अथवा सलाह को ही प्राथमिकता दी जाती है। विभिन्न नीतियों अथवा योजनाओं की गाइडलाइंस तैयार करने के लिए बनाई गई समितियां भी पुरुष कर्मचारियों की अध्यक्षता में ही रहती है।
खेलों में भी लैंगिक असमानता बहुत देखने को मिलती है। पुरुष खिलाड़ियों का वेतन महिला खिलाड़ियों के वेतन से अक्सर ज्यादा होता है। सामाजिक तौर पर भी पुरुष खिलाड़ियों को अधिक सम्मान मिलता है। इसके अलावा पुरुषों के खेलों को अधिक ख्याति प्राप्त है।
मनोरंजन जगत –
मनोरंजन के जगत में भी लैंगिक असमानता अपने पैर पसार चुकी है। जैसे किसी फिल्म को अभिनेता विशेष के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है एवं प्रसिद्धि मिलती है। और अभिनेता ही मुख्य किरदार के रूप में जाने जाते हैं।
बाजारी कार्यशैली –
अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में लैंगिक असमानता सबसे ज्यादा देखने को मिलती है। लगभग हर असंगठित क्षेत्र मैं समान कार्य के लिए वेतन महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मिलता है एवं महिला कर्मचारियों को इतना महत्व भी नहीं दिया जाता।
स्वामित्व में असमानता –
भारत में संवैधानिक तौर पर महिलाओं को स्वामित्व का अधिकार दिया गया है परंतु जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। जब महिला बाल्यावस्था मैं या व्यस्क होती है तब सारे अधिकार उसके पिता के पास होते हैं।
शादी के बाद महिलाओं को अपने पति के कहने पर चलना होता है तथा वृद्धावस्था में महिलाएं अपने बच्चों के नियंत्रण में रहती है। हालांकि शहरी इलाकों में यह स्थिति कुछ हद तक बदली है
परंतु ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के पास स्वामित्व का अधिकार व्यवहारिक तौर पर कहीं नाम मात्र ही देखने को मिलता है जो की महिलाओं के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है और यह लैंगिक असमानता को और मजबूती प्रदान करता है जो देश के लिए चिंतनीय है।
शिक्षा जगत –
शिक्षाा के क्षेत्र में भी लैंगिक असमानता शिक्षित समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है। कम उम्र में शादी कर देना सामाजिक सुरक्षा को लेकर जो स्थितियां भारत के विभिन्न समुदायों में है उनकी वजह से महिलाओं की शादी कम उम्र में कर दी जाती है।
जिसकी वजह से देश में महिला साक्षरता पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। समाज की व्यवस्था के चलते महिलाओं के पढ़ने लिखने को लेकर ग्रामीण भारत की मानसिकता अभी काफी संकीर्ण है।
जैसे तेलुगू भाषा में एक कहावत है- ‘लड़की को पढ़ाना दूसरे के बगीचे के पेड़ को पानी देने जैसा है जिसका फल हमें नहीं मिलता।’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि विभिन्न समुदायों में महिलाओं को लेकर समाज के क्या मानसिकता है।
लैगिकक असमानता को खत्म करने पर सरकारी एवं न्यायपालिका सक्रियता से कार्य कर रही है। उदाहरण के तौर पर- वर्तमान में व्याप्त है ऐसे कुछ उदाहरण जो लैंगिक समानता को बढ़ावा दे रहे थे परन्तु उन पर रोक लगी है। कुछ सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक मुद्दे जिन पर रोक लगाई गई है, तीन तलाक का कानून, हाजी दरगाह में प्रवेश इत्यादि कुछ प्रमुख उदाहरण है।
भारत ने मैक्सिको कार्ययोजना (1975), नैरोबी अग्रदर्शी (Provident) रणनीतियाँ (1985) और लैगिक समानता तथा विकास एवं शांति पर संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र द्वारा 21वीं शताब्दी के लिये अंगीकृत “बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफार्म फॉर एक्शन को कार्यान्वित करने के लिये और कार्रवाइयाँ एवं पहलें” जैसे लैंगिक समानता की पहलों की शुरुआत की है।
जो विश्वभर में क्रियान्वित होगी।अलग-अलग राज्य सरकारों के द्वारा ऐसी अनेकों योजनाएं शुरू की जा रही है जिन से महिलाओं के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का स्तर ऊपर उठेगा। जैसे ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ााओ’, ‘वन स्टॉप सेंटर योजना शक्ति केंद्र’ ‘उज्जवला योजना’।
जेंडर रेस्पॉन्सिव बजट – महिला सशक्तिकरण एवं शिशु कल्याण के लिए राजकोषीय नीतियों के द्वारा सुधार करना जीआरबी कहलाता हैै। भारत सरकार ने अपने वित्तीय बजट में इस बजट को 2005 में औपचारिक रूप से पहली बार जगह दी थी।
पर तमाम राजनीतिक और न्यायिक प्रयासों के बावजूद जमीनी हकीकत कुछ और ही है यानी लैंगिक असमानता समाज में व्याप्त वह बीमारी है जो सैकड़ों बरसो से अपनेेेे पैर जमाए हुए हैं। असाधारण प्रयासों से ही लैंगिक समानता पर विजय हासिल की जा सकती है।
देश में लैंगिक समानता की आवश्यकता को लेकर सभाएं की जाए, अलग-अलग कार्यक्रम किए जाए, अभियान चलाए जाए, कठोर एवं प्रभावी नीतियां बनाई जाए, कठोर कानून बनाए जाए तथा समाज को शिक्षित किया जाए।
जब तक समाज के पुरुष वर्ग के हर सदस्य को इस भावना से ओतप्रोत नहीं किया जाए कि सबको बराबरी का हकदार बनाने का यह मतलब नहीं है कि हमारे अधिकार छीन लिए गए हो क्योंकि नीतियों और कानूनों से ज्यादा प्रभाव समाज की मानसिकता का होता है।
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भारतीय समाज
Make Your Note
लैंगिक असमानता: कारण और समाधान
- 26 Jun 2020
- 16 min read
- सामान्य अध्ययन-II
- महिलाओं से संबंधित मुद्दे
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में लैंगिक असमानता के कारण और समाधान से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
‘जब हम महिलाओं और बालिकाओं में निवेश करते हैं, तो वास्तविकता में हम उन लोगों में निवेश कर रहे होते हैं, जो बाकी सभी क्षेत्रों में निवेश करते हैं’। मेलिंडा गेट्स का यह कथन प्रत्येक क्षेत्र में न केवल महिलाओं के महत्त्व को रेखांकित करता है, बल्कि उनकी उनकी प्रासंगिकता का भी विनिर्धारण करता है। क्या आपने कभी अपने आस-पास या पड़ोस में बेटी के जन्म पर ढ़ोल नगाड़े या शहनाइयाँ बजते देखा है? शायद नहीं देखा होगा और देखा भी होगा तो कहीं इक्का-दुक्का। वस्तुतः हम भारत के लोग 21वीं सदी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं, बेटा पैदा होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और अगर बेटी का जन्म हो जाए तो शांत हो जाते हैं। वैश्विक महामारी COVID-19 के बाद महिलाओं की स्थिति में गिरावट की आशंका व्यक्त की जा रही है। इसलिये इस समस्या से निपटने में असाधारण सुधारात्मक नीतियों के तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) के द्वारा जारी वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट (Global Gender Gap Report), 2020 के अनुसार, भारत 91/100 लिंगानुपात के साथ 112वें स्थान पर रहा। उल्लेखनीय है कि वार्षिक रूप से जारी होने वाली इस रिपोर्ट में भारत पिछले दो वर्षों से 108वें स्थान पर बना हुआ था। महिला और पुरुष समाज के मूल आधार हैं। समाज में लैंगिक असमानता सोच-समझकर बनाई गई एक खाई है, जिससे समानता के स्तर को प्राप्त करने का सफर बहुत मुश्किल हो जाता है।
लैंगिक असमानता के विभिन्न क्षेत्रों की बात करें तो इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र के साथ वैज्ञानिक क्षेत्र, मनोरंजन क्षेत्र, चिकित्सा क्षेत्र और खेल क्षेत्र प्रमुख हैं। लैंगिक असमानता की इस खाई को दूर करने में हमें अभी मीलों चलना होगा। इस आलेख में लैंगिक असमानता के कारणों पर न केवल चर्चा की जाएगी बल्कि इस समस्या का समाधान तलाशने का प्रयास भी किया जाएगा।
लैंगिक असमानता से तात्पर्य
- लैंगिक असमानता का तात्पर्य लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है। परंपरागत रूप से समाज में महिलाओं को कमज़ोर वर्ग के रूप में देखा जाता रहा है।
- वे घर और समाज दोनों जगहों पर शोषण, अपमान और भेदभाव से पीड़ित होती हैं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है।
- वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट, 2020 के अनुसार भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैंगिक भेदभाव की जड़ें कितनी मज़बूत और गहरी हैं।
चिंताजनक हैं आँकड़े
- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता के क्षेत्र में भारत (150वाँ स्थान) का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है।
- जबकि भारत के मुकाबले हमारे पड़ोसी देशों का प्रदर्शन बेहतर रहा- बांग्लादेश (50वाँ), नेपाल (101),श्रीलंका (102वाँ), इंडोनेशिया (85वाँ) और चीन (106वाँ)।
- जबकि यमन (153वाँ), इराक़ (152वाँ) और पाकिस्तान (151वाँ) का प्रदर्शन सबसे खराब रहा।
- लेकिन भारतीय राजनीति में आज भी महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बहुत ही कम है, आकड़ों के अनुसार, केवल 14 प्रतिशत महिलाएँ ही संसद तक पहुँच पाती हैं ( विश्व में 122वाँ स्थान)।
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत के इस बेहतर प्रदर्शन का कारण यह है कि भारतीय राजनीति में पिछले 50 में से 20 वर्षों में अनेक महिलाएँ राजनीतिक शीर्षस्थ पदों पर रही है। ( इंदिरा गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता आदि)
- जबकि इस मानक पर वर्ष 2018 में भारत का स्थान 114वाँ और वर्ष 2017 में 112वें स्थान पर रहा।
- 153 देशों में किये गए सर्वे में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत राजनीतिक क्षेत्र से कम है।
- WEF के आँकड़ों के अनुसार, अवसरों के मामले में विभिन्न देशों में आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति इस प्रकार है- भारत (35.4%), पाकिस्तान (32.7%), यमन (27.3%), सीरिया (24.9%) और इराक़ (22.7%)।
लैंगिक असमानता का अर्थशास्त्र
- महिलाएँ दुनिया की कुल आबादी का करीब-करीब आधा हिस्सा हैं, और इसी कारण से लैंगिक विभेद के व्यापक और दूरगामी असर होते हैं, जिनका समाज के हर स्तंभ पर असर दिखता है।
- इस का आर्थिक मोर्चे पर भी बहुत गहरा असर होता है। विश्व बैंक समूह की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पुरुषों और महिलाओं के वेतन में असमानता की वजह से विश्व अर्थव्यवस्था को करीब 160 खरब डॉलर की क्षति उठानी पड़ी थी।
- यह एक बड़ी हानि है, जिसकी व्यापकता का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। खास तौर से तब, जब हमें यह पता चलता है कि अगर पुरुष और महिला कामगारों का वेतन एकसमान कर दिया जाए, तो इससे विश्व की संपत्ति में हर व्यक्ति की ज़िंदगी में क़रीब 23 हज़ार 620 डॉलर की वृद्धि हो जाएगी।
लैंगिक असमानता के कारक
- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद वर्तमान भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता जटिल रूप में व्याप्त है। इसके कारण महिलाओं को आज भी एक ज़िम्मेदारी समझा जाता है। महिलाओं को सामाजिक और पारिवारिक रुढ़ियों के कारण विकास के कम अवसर मिलते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। सबरीमाला और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर सामाजिक मतभेद पितृसत्तात्मक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है।
- भारत में आज भी व्यावहारिक स्तर (वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति पर महिलाओं का समान अधिकार है) पर पारिवारिक संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार प्रचलन में नहीं है इसलिये उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया जाता है।
- राजनीतिक स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़कर उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है।
- वर्ष 2017-18 के नवीनतम आधिकारिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) दर कम है। ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक मापदंड पर महिलाओं की आत्मनिर्भरता पुरुषों पर बनी हुई है।
- महिलाओं के रोज़गार की अंडर-रिपोर्टिंग (Under-Reporting) की जाती है अर्थात् महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और उद्यमों पर कार्य करने को तथा घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्यों को सकल घरेलू उत्पाद में नहीं जोड़ा जाता है।
- शैक्षिक कारक जैसे मानकों पर महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा कमज़ोर है। हालाँकि लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में वृद्धि हुई है तथा माध्यमिक शिक्षा तक लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का नामांकन पुरुषों की तुलना में काफी कम है।
असमानता को समाप्त करने के प्रयास
- समाज की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर गंभीरता से विमर्श किया जा रहा है। तीन तलाक, हाज़ी अली दरगाह में प्रवेश जैसे मुद्दों पर सरकार तथा न्यायालय की सक्रियता के कारण महिलाओं को उनका अधिकार प्रदान किया जा रहा है।
- राजनीतिक प्रतिभाग के क्षेत्र में भारत लगातार अच्छा प्रयास कर रहा है इसी के परिणामस्वरुप वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक- 2020 के राजनीतिक सशक्तीकरण और भागीदारी मानक पर अन्य बिंदुओं की अपेक्षा भारत को 18वाँ स्थान प्राप्त हुआ।
- भारत ने मैक्सिको कार्ययोजना (1975), नैरोबी अग्रदर्शी (Provident) रणनीतियाँ (1985) और लैगिक समानता तथा विकास एवं शांति पर संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र द्वारा 21वीं शताब्दी के लिये अंगीकृत "बीजिंग डिक्लरेशन एंड प्लेटफार्म फॉर एक्शन को कार्यान्वित करने के लिये और कार्रवाइयाँ एवं पहलें" जैसी लैंगिक समानता की वैश्विक पहलों की अभिपुष्टि की है।
- ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं’, ‘वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तीकरण का प्रयास किया जा रहा है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप लिंगानुपात और लड़कियों के शैक्षिक नामांकन में प्रगति देखी जा रही है।
- आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हेतु मुद्रा और अन्य महिला केंद्रित योजनाएँ चलाई जा रही हैं।
- लैंगिक असमानता को दूर करने के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये किये जाने वाले धन आवंटन के उल्लेख को जेंडर बजटिंग कहा जाता है। दरअसल जेंडर बजटिंग शब्द विगत दो-तीन दशकों में वैश्विक पटल पर उभरा है। इसके ज़रिये सरकारी योजनाओं का लाभ महिलाओं तक पहुँचाया जाता है।
‘जेंडर बजटिंग’ क्या है?
- लैंगिक समानता के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये किये जाने वाले धन आवंटन के उल्लेख को जेंडर बजटिंग कहा जाता है।
- महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये 2005 से भारत ने औपचारिक रूप से वित्तीय बजट में जेंडर उत्तरदायी बजटिंग (Gender Responsive Budgeting- GRB) को अंगीकार किया था। जीआरबी का उद्देश्य है- राजकोषीय नीतियों के माध्यम से लिंग संबंधी चिंताओं का समाधान करना।
- लैंगिक समानता के उद्देश्य को हासिल करना जागरूकता कार्यक्रमों के आयोजन और कार्यालयों में कुछ पोस्टर चिपकाने तक ही सीमित नहीं है। यह मूल रूप से किसी भी समाज के दो सबसे मजबूत संस्थानों - परिवार और धर्म की मान्यताओं को बदलने से संबंधित है।
- जेंडर बजटिंग के माध्यम से महिलाओं को प्रत्यक्ष लाभार्थी बनाने की बजाय उन्हें विकास यात्रा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बनाना होगा। हालाँकि, जेंडर बजटिंग लैंगिक असमानता को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है लेकिन इसके लिये जीआरबी के माध्यम से नीतियों को और अधिक प्रभावी और व्यापक दृष्टिकोण से युक्त बनाना होगा, उचित और व्यावहारिक आवंटन सुनिश्चित करना होगा। वास्तविक सुधारों के लिये जेंडर बजटिंग को महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता से जोड़ना होगा।
प्रश्न- लैंगिक असमानता से आप क्या समझते हैं? लैंगिक असमानता के कारणों का उल्लेख करते हुए समाधान की दिशा में किये जा रहे प्रयासों की चर्चा कीजिये।

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लैंगिक भेदभाव पर निबंध
दोस्तों नमस्कार क्या आप लैंगिक भेदभाव पर निबंध – Gender discrimination Essay in Hindi जानना चाहते हैं तो यह पोस्ट एकदम सही है आपके लिए
इस पोस्ट के माध्यम से आज लिंग भेदभाव पर निबंध यानि जिसे की लिंग असमानता भी कहा जाता है पर निबंध हम जानेंगे. तो आइए जानते हैं
लैंगिक भेदभाव पर निबंध – Gender Discrimination Essay in Hindi

“लड़का-लड़की एक समान दोनों को दो पूरा सम्मान”
हमारे देश भारत में लैंगिक भेदभाव का मुद्दा एक सामाजिक मुद्दा है. लैंगिक भेदभाव समाज में किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी लैंगिक पहचान के आधार पर भेदभाव करने को संदर्भित करता है
भारत में पितृप्रधान समाज की व्यवस्था देखने को मिलती है. फलस्वरूप महिलाएं लैंगिक भेदभाव की अधिक शिकार हैं. महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा निम्न समझा जाता है
लैंगिक भेदभाव का अर्थ
लैंगिक भेदभाव का अर्थ लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव करना है. जहां स्त्रियों को पुरुषों के समान ना तो अवसर मिलता है और न ही समान व्यवहार
स्त्रियों को एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उनका शोषण और अपमान किया जाता है. महिलाओं के साथ यह भेदभाव सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, खेल, मनोरंजन आदि प्रत्येक क्षेत्र में ही किया जाता है
लैंगिक भेदभाव के कारण
— संकीर्ण विचारधारा —.
लड़के और लड़की में भेद का प्रमुख कारण समाज के लोगों की संकीर्ण विचारधारा है. लोग लड़के को बुढ़ापे का सहारा, वंश चलाने वाला और घर खर्च चलाने वाला समझते हैं जबकि लड़की के मामले में ऐसा नहीं समझा जाता
बेटी के पढ़ाने लिखाने में पैसा खर्च करना लोग पैसे की बर्बादी समझते हैं. हालाँकि वर्तमान में बालिकाओं ने उस संकीर्ण सोच और मिथकों को तोड़ने का कार्य किया है फिर भी लड़कियों का महत्व लड़कों की अपेक्षा कम ही आंका जाता है जिससे लिंग भेदभाव में वृद्धि होती है
— प्राचीन मान्यताएं —
लैंगिक भेदभाव का एक प्रमुख कारण भारतीय मान्यताएं एवं परंपराएं भी हैं. भारत में श्राद्ध और पिण्ड दान का अधिकार पुत्रों को ही प्राप्त है
अथर्ववेद के अनुसार स्त्री को बचपन में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन तथा वृद्ध होने पर पुत्र के अधीन रहना चाहिए, इस प्रकार स्त्रियों का अस्तित्व ना के बराबर ही रह जाता है जिससे लैंगिक भेदभाव और अधिक प्रबल हो जाता है
— जागरूकता का अभाव —
समाज में लैंगिक मुद्दों के प्रति जागरूकता का अभाव है. फलस्वरूप लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण, शिक्षा, करियर आदि विभिन्न स्तरों पर भेदभाव किया जाता है
भारत में लड़कियां रक्ताल्पता और कुपोषण की अधिक शिकार होती हैं. बहुत सी लड़कियां पढ़ाई में होशियार होने के बावजूद उच्च शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाती हैं. किसी भी क्षेत्र में नौकरी करने वालों में लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा बेहद कम होती है
— अशिक्षा —
लैंगिक भेद में अशिक्षा की भूमिका भी कम नहीं है. अशिक्षित व्यक्ति परिवारों तथा समाज में चली आ रही पुरातन सोच और ख्यालों को ही मानते रहते हैं तथा बिना सोचे समझे उनका पालन करते हैं
इसी कारण लड़के का महत्व लड़की की अपेक्षा अधिक मानते हैं. जबकि शिक्षित व्यक्ति अपने जीवन मे एक स्त्री का अस्तित्व और महत्वता आसानी से अनुभव कर सकता है
लैंगिक भेदभाव की समाप्ति के उपाय
लैंगिक भेदभाव में कमी लाने हेतु महिलाओं को सशक्त बनाना अति आवश्यक है क्योंकि जब महिलाएं सशक्त बनेगी तब वह अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक होंगी व अपने प्रति होने वाले अन्याय का दमन कर सकेंगी
- महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सामाजिक और वैधानिक दोनों स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए
- जागरूकता कार्यक्रमों की मदद से धीरे-धीरे सामाजिक धारणाएं को बदलने की कोशिश की जानी चाहिए
- समाज के अधिक प्रभावी पुरुष वर्ग को महिलाओं के प्रति अपनी सोच में बदलाव लाकर उनका सम्मान करना चाहिए इससे स्त्रियों को बहुत सी सामाजिक बंदिशों से स्वतः ही छुटकारा मिल जाएगा
- सरकार द्वारा स्त्रियों से जुड़ी हुई सामाजिक कुप्रथाओं व बुराइयों जैसे कि दहेज प्रथा, बाल विवाह प्रथा, शारीरिक व मानसिक शोषण आदि के विरुद्ध कड़े से कड़े कानून बनाकर सख्त दंड का प्रावधान रखा जाना चाहिए जिससे इनसे जुड़े अपराधों में कमी आए फलस्वरूप समाज द्वारा लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव में कमी आए
- महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए भी सख्त से सख्त दंडात्मक कानून बनाए जाने चाहिए
- महिलाओं की मदद हेतु विभिन्न राष्ट्रीय व स्थानीय महिला आयोगों द्वारा तत्काल कार्यवाही सुनिश्चित की जानी चाहिए
- सरकारी व प्राइवेट विभागों में महिलाओं की भी बराबर भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए
- समान कार्य के लिए समान मजदूरी का कानून जमीनी स्तर पर कार्यान्वित होना चाहिए
भारत में लैंगिक भेदभाव हर क्षेत्र में व्याप्त है. हालांकि इसको मिटाने के लिए सरकार तथा विभिन्न समाज कल्याण विभागों द्वारा काफी कुछ किया गया है, जिससे काफी बदलाव आया है
किंतु फिर भी काफी कुछ अभी भी किए जाने की जरूरत है. खासकर के समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे
हमें समझना होगा कि इंसान तो आखिर इंसान होता है चाहे किसी भी लिंग का हो, अगर सभी को जीवन में आगे बढ़ने का समान अवसर मिलेगा तो इससे परिवार, समाज और देश का विकास होगा
“लैंगिक असमानता से पीड़ित समाज देश को बदलाव की जरूरत आज “
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संक्षेप में
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लैंगिक भेदभाव । Gender discrimination in hindi
Posted by P B Chaudhary | 💡 Social and Politics
लैंगिक भेदभाव या लैंगिक असमानता समाज की वो कुरीति है जिसकी वजह से महिलाएं उस सामाजिक दर्जे से हमेशा वंचित रही जो दर्जा पुरुष वर्ग को प्राप्त है।
आज ये एक ज्वलंत मुद्दा है। इस लेख में लैंगिक भेदभाव (Gender discrimination) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

लैंगिक भेदभाव क्या है?
स्त्री-पुरुष मानव समाज की आधारशिला है। किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव एक सामाजिक यथार्थ है। लैंगिक भेदभाव से आशय लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है, जहां स्त्रियों को पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलता है और न ही समान व्यवहार। स्त्रियों को एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उसे शोषित और अपमानित किया जाता है। इस रूप में स्त्रियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) कहा जाता है।
आइये अब समझते हैं कि लैंगिक भेदभाव की शुरुआत कहाँ से होती है। पर इससे पहले आपको बता दूं कि अगर आपको Age Calculate करनी है, तो आप दिए गए Online Tool का इस्तेमाल कर सकते हैं – Age Calculator Online
लैंगिक भेदभाव की शुरुआत कहाँ से होती है?
इसकी शुरुआत परिवार से ही समाजीकरण (Socialization) के क्रम में प्रारंभ होती है, जो आगे चलकर पोस्ट होती जाती है। परिवार मानव की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। यह समाज का आधारशिला है। समाज में जितने भी छोटे-बड़े संगठन हैं, उनमें परिवार का महत्व सबसे अधिक है यह मानव की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित है।
व्यक्ति जन्म से जैविकीय प्राणी होता है और जन्म से ही लिंगों के बीच कुछ विशेष भिन्नताओं को स्थापित और पुष्ट करती है। बचपन से ही लड़कों व लड़कियों के लिंग-भेद के अनुरूप व्यवहार करना, कपड़ा पहनना एवं खेलने के ढंग आदि सिखाया जाता है। यह प्रशिक्षण निरंतर चलता रहता है, फिर जरूरत पड़ने पर लिंग अनुरूप सांचे में डालने के लिए बाध्य किया जाता है तथा यदा-कदा सजा भी दी जाती है।
बालक व बालिकाओं के खेल व खिलौने इस तरह से भिन्न होते हैं कि समाज द्वारा परिभाषित नर-नारी के धारणा के अनुरूप ही उनका विकास हो सके। सौंदर्य के प्रति अभिरुचि की आधारशिला भी बाल्यकाल से ही लड़की के मन में अंकित कर दी जाती है, इस प्रक्रिया में बालिका के संदर्भ में सौंदर्य को बुद्धि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है। कहने का अर्थ ये है कि जहां समाज में लड़कों के बौद्धिक क्षमताओं को प्राथमिकता दी जाती है वहीं लड़कियों के बौद्धिक क्षमताओं को दोयम दर्जे का समझ जाता है।
समाज द्वारा स्थापित ऐसी अनेक संस्थाएं या व्यवस्थाएं हैं जो नारी की प्रस्थिति को निम्न बनाने में सहायक होती है, जैसे कि –
(1) पितृ-सतात्मक समाज (Patriarchal society)
पितृ-सतात्मक भारतीय समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को लेकर, उनकी आत्म-निर्भरता के सवाल पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। स्त्री की कार्यक्षमता और कार्यदक्षता को लेकर तो वह इस कदर ससंकित है कि नवाचार को लेकर उनके किसी भी प्रयास को हतोत्साहित करता दिखता है।
देश में आम से लेकर ख़ास व्यक्ति तक लगभग सभी में यह दृष्टिकोण व्याप्त है कि स्त्री का दायरा घर की चारदीवारी तक ही होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि स्त्रियों की लिंग-भेद आधारित काम एवं अधीनता जैसी असमानता जैविक नहीं बल्कि सामाजिक – सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की देन है।
आज सामाजिक असमानता एक सार्वभौमिक तथ्य है और यह प्रायः सभी समाजों की विशेषता रही है भारत की तो यह एक प्रमुख समस्या है। यहाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है उतनी स्त्रियों को नहीं। इस बात की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी 15वीं वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2021 की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है। भारत की स्थिति इस मामले में कितनी ख़राब है इसका पता इससे चलता है कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी भारत से अच्छी स्थिति में है।
यहाँ से देखें – भारतीय राजव्यवस्था टॉपिक वाइज़ लेख
(2) लड़का और लड़की के शिक्षा में अंतर
यदि हम भारत में लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो स्वतंत्रता के बाद अवश्य ही लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ी है, लेकिन लड़कियों को शिक्षा दिलाने में वह उत्साह नहीं देखी जाती है। भारतीय परिवार में लड़के की शिक्षा पर धन व्यय करने की प्रवृति है क्योंकि वे सोचते है कि ऐसा करने से ‘धन’ घर में ही रहेगा
जबकि बालिकाओं के शिक्षा के बारे में उनके माता–पिता की यह सोच है कि उन्हें शिक्षित करके आर्थिक रूप से हानि ही होगी क्योंकि बेटी तो एक दिन चली जाएगी। शायद इसीलिए भारत में महिला साक्षरता की दर पुरुषों की अपेक्षा इतनी कम है:
सन् 1991 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता की दर 32 प्रतिशत एवं पुरुष साक्षरता 53 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 76 प्रतिशत थी तो महिलाओं की साक्षरता 54 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 82.14 प्रतिशत है एवं महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत है। जिनमें आन्ध्र-प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में स्त्री पुरुष साक्षरता में 25 प्रतिशत का अंतर हैं।
इस सब के बावजूद भी जो लडकियाँ आत्मविश्वास से शिक्षित होने में सफल हो जाती है और पुरुषों के समक्ष अपना विकास करना चाहती है, उन्हें पुरुषों के समाज में उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। यहाँ तक कि नौकरियों में महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। इस बात की पुष्टि लिंक्डइन अपार्च्युनिटी सर्वे-2021 से होती है। इस सर्वे के अनुसार देश की 37 प्रतिशत महिलाएं मानती हैं कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, जबकि 22 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में वरीयता नहीं दी जाती है।
लड़कियों के प्रति किया जाने वाला यह भेदभाव बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चलता है। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता हैं। अनुमान है की भारत में हर छठी महिला की मृत्यु लैंगिक भेदभाव के कारण होती हैं।
यहाँ से देखें – भारत में आरक्षण [Reservation in India] [1/4]
(3) लैंगिक भेदभाव को प्रोत्साहन देने वाली मानसिकता
अनेक पुरुष-प्रधान परिवारों में लड़की को जन्म देने पर माँ को प्रतारित किया जाता हैं। पुत्र प्राप्ति के चक्कर में उसे बार-बार गर्भ धारण करना पड़ता हैं और मादा भ्रूण होने पर गर्भपात करना पड़ता हैं। यह सिलसिला वर्षो तक चलता रहता है चाहे महिला की जान ही क्यों न चला जाए। यही कारण है जिससे प्रति हज़ार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या हमेशा कम रही है।
जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर 972 औरतें थी। 1951 में औरतों की संख्या प्रति हजार 946 हो गई, जो कि 1991 तक आते-आते सिर्फ 927 रह गई। सन् 2001 की जनगणना की रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या 933 हुई और 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार ये 940 तक पहुंची है।
इस घटते हुए अनुपात का प्रमुख कारण समाज का नारी के प्रति बहुत ही संकीर्ण मानसिकता है। अधिकांश परिवार यह सोचते हैं की लड़कियां न तो बेटों के समान उनके वृद्धावस्था का सहारा बन सकती है और ना ही दहेज ला सकती है। इस प्रकार की मानसिकता वाले समाज में महिलाओं के लिए रहना कितना दुष्कर होगा; ये सोचने वाली बात है।
(4) लैंगिक भेदभाव के अन्य कारक
▪️ वैधानिक स्तर पर पिता की संपत्ति पर महिलाओं का पुरुषों के समान ही अधिकार है लेकिन आज भी भारत में व्यावहारिक स्तर पर पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं के हक़ को नकार दिया जाता है।
▪️ राजनैतिक भागीदारी के मामलों में अगर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़ दें तो उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है।
▪️ कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे कि मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश एवं चंडीगढ़ आदि को छोड़ दें तो वर्ष 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) की दर में कमी आयी है।
▪️ महिलाओं के द्वारा किए गए कुछ कामों को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में नहीं जोड़ा जाता है जैसे कि महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्य (जैसे खाना बनाना, बच्चे की देखभाल करना आदि)। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारत में महिलाओं को श्रमबल में बराबरी मिल जाए तो GDP में 27 प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है।
यहाँ से देखें – वर्टिकल एवं हॉरिजॉन्टल आरक्षण में अंतर
लैंगिक भेदभाव को कैसे समाप्त किया जा सकता है?
▪️ कहने को तो लड़के और लड़कियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू है पर लड़कियाँ सिक्के का वो पहलू है, जिन्हें दूसरे पहलू (लड़कों) द्वारा दबाकर रखा जाता हैं। समस्या की मूल जड़ इसी सोच के साथ जुड़ी है, जहां लड़कों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि वे परिवार के भावी मुखिया हैं और लड़कियों को यह बताया जाता है कि वे तभी अच्छी मानी जाएंगी, जब वे हर स्थिति में पहली प्राथमिकता परिवार को देंगी।
‘प्रभुत्व’ का भाव पुरुषों के हिस्से और देखभाल का भाव स्त्री के हिस्से मान लिया जाता है। ये दोनों भाव पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्व को ऐसे गढ़ देते हैं कि वे इस खोल से निकलने की कोशिश ही नहीं करते। इसके लिए पुरुष वर्ग को खुद आगे बढ़कर अपने प्रभुत्व के भाव को स्त्रियों के साथ साझा करना होगा और उन कामों को जिसे स्त्रियों का माना जाता है उसमें सहयोग करना होगा।
▪️ यूनीसेफ का कहना है कि घर व बाहर, दोनों जगह के कार्यों का दबाव स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर रहा है, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि – घर के काम में पुरुष सदस्य सहयोग करें, पिता का दायित्व सिर्फ आर्थिक दायित्वों की पूर्ति से ऊपर उठकर बच्चों की देखभाल तक हो। इससे समानता का भाव बढ़ेगा और स्त्री खुद को अन्य जरूरी कामों में संलग्न कर पाएगी।
▪️ भारतीय समाज में स्त्री को बड़े ही आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है। देवियों के विभिन्न रूपों में सरस्वती, काली, लक्ष्मी, दुर्गा आदि का वर्णन मिलता है। यहाँ तक की भारत को भी भारतमाता के रूप में जाना जाता है। परन्तु व्यवहार में स्त्रियों को उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। इसके लिए पुरुष वर्ग को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा ताकि वे स्त्रियों को उसी सम्मान और आदर के भाव से देखें जो वह खुद अपने लिए अपेक्षा करता है।
▪️ लड़कियों को उच्च शिक्षा , कौशल विकास , खेल कूद आदि में प्रोत्साहन देकर सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए समाज को लड़कियों के प्रति अपनी धारणा व सोच बदलनी पड़ेगी और सरकार को भी उचित कानून बनाकर या जागरूकता या निवेश के जरिये महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना होगा।
▪️ चूंकि लड़कियों को शुरू से ही काफी असमानताओं का सामना करना पड़ता है इसीलिए हमें लड़कियों को एक प्लैटफ़ार्म देना होगा जहाँ वे अपनी चुनौतियों को साझा कर सके, अपने लिए एक सही विकल्प तलाश कर सकें और अपने वैधानिक अधिकार, कर्तव्य एवं शक्तियों को पहचान सकें।
यहाँ से देखें – कहानियाँ
लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए किया जा रहा प्रयास
▪️ बालिकाओं के संरक्षण और सशक्तिकरण के उद्देश्य से जनवरी 2015 में ‘ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ’ अभियान की शुरुआत की गई। जो कि बेटियों के अस्तित्व को बचाने एवं उसका संरक्षण करने की दिशा में बहुत बड़ा कदम माना जाता है। इसके साथ ही वन स्टॉप सेंटर योजना ’, ‘ महिला हेल्पलाइन योजना ’ और ‘ महिला शक्ति केंद्र ’ जैसी योजनाओं के द्वारा महिला सशक्तीकरण का सरकारी प्रयास सराहनीय है।
▪️ सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे महिलाओं तक पहुंचे इसके लिए जेंडर बजटिंग का चलन बढ़ रहा है। दरअसल जब किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण के लिए अलग से धन आवंटित किया जाये तो उसे जेंडर बजटिंग कहा जाता है।
▪️ यूनिसेफ इंडिया द्वारा लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में काफी कुछ किया जा रहा है। इसके लिए देश में 2018-2022 तक चलने वाले कार्यक्रम का निर्माण किया गया है जिसके तहत लिंग आधारित असमानता एवं विकृत्यों को चिन्हित कर उसका उन्मूलन करने का प्रयास किया जाएगा। इस पूरे कार्यक्रम को यहाँ क्लिक करके देख सकते हैं।
कुल मिलाकर लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए काफी कुछ किया गया है और काफी कुछ अभी भी किए जाने की जरूरत है। खासकर के समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे। महिलाओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव पैदा हो इसके लिए पुरुषों के समान अधिकार और आर्थिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना होगा।
References, लैंगिक भेदभाव शोध पत्र https://en.wikipedia.org/wiki/2011_Census_of_India लैंगिक विषमता के समांतर सवाल – जनसत्ता
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भारत में लैंगिक असमानता (निबंध) Gender Inequality in India in Hindi

इस लेख में आप भारत में लैंगिक असमानता (निबंध) Gender Inequality in India in Hindi पढ़ेंगे। इसमें लैंगिक असमानता की परिभाषा, इतिहास, आँकड़े, प्रकार, कारण, प्रभाव, रोकने के उपायों के विषय में जानकारी दी गई है।
लैंगिक असमानता की परिभाषा Definition of Gender Inequality
असमानता एक बेहद बुरा शब्द है, जो हर तरफ से पक्षपात की तरफ इशारा करता है। लैंगिक असमानता का तात्पर्य ऐसे पक्षपात अथवा असमानता से है, जो लिंग के आधार पर किया जाता है।
लैंगिक असमानता महिलाओं के लिए बेहद दयनीय परिस्थिति होती है, जहां बचपन से लेकर अंत तक उनका शोषण, अपमान और भेदभाव किया जाता है। लैंगिक असमानता का मुख्य कारण पितृसत्तात्मक विचारधारा को ठहराया जा सकता है।
भारत में लैंगिक असमानता का इतिहास History of Gender Inequality in India
जिस तरह स्वेच्छा से किए गए दान को लोगों ने दहेज प्रथा में बदल दिया। इसी प्रकार न जाने कितने ही ऐसे महान रिवाज़ होंगे, जिन्हें लोग समझ नहीं पाए और उसे अंधश्रद्धा में तब्दील कर लिया।
भारत में लैंगिक असमानता के आँकड़े Gender Inequality in India Statistics 2020-2022
2022 में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) द्वारा ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत को 146 देशों में से 135वां स्थान पर प्राप्त हुआ है। 2021 में भारत 156 देशों में 140वें स्थान पर था।
लैंगिक असमानता के प्रकार Types of Gender Inequality in India)
घरेलू असमानता.
भारतीय समाज में पुरुषों को अधिक वरीयता दी जाती है। उनकी अपेक्षा महिलाओं को इतनी स्वतंत्रता नहीं होती है। कई बार यह असमानता माता-पिता और परिवार वालों की तरफ से किए जाते हैं।
बुनियादी सुविधा में असमानता
स्वामित्व असमानता.
स्वामित्व में भी महिलाओं और पुरुषों के बीच एक बड़ी असमानता देखी जाती है। पारिवारिक संपत्ति केवल पुरुषों का ही अधिकार बना रहता है। एक ही परिवार का होने के बावजूद भी माता पिता की संपत्ति पर एक स्त्री का कोई अधिकार नहीं रहता। यह समस्या भारतीय समाज में साफ देखी जा सकती है।
मृत्यु दर असमानता
भारत के कई राज्यों में महिलाओं और पुरुषों के लैंगिक अनुपात में बड़ा फर्क है। अक्सर लोग महिला शिशु की तुलना में पुरुष शिशु को वरीयता देते हैं।
जन्मजात असमानता
विशेष अवसर असमानता, रोजगार असमानता.
अक्सर रोजगार के साधनों में भी महिला और पुरुष कार्यकर्ताओं में पक्षपात किया जाता है। पुरुषों को उनके काम के लिए अधिक वेतन प्रदान किया जाता है, जबकि यदि उतना ही कार्य महिला करें तो लोग उसे ज्यादा महत्व नहीं देते और वेतन भी कम प्रदान करते हैं। इसके अलावा पदोन्नति के मामले में भी लैंगिक असमानता उत्पन्न होती है।
भारत में लैंगिक असमानता का कारण Causes of Gender Inequality in India
पितृसत्तात्मक व्यवस्था, महिलाओं में जागरूकता का अभाव.
लैंगिक असमानता को कभी भी खत्म नहीं किया जा, सकता बसरते महिलाएं इसके लिए स्वयं जागरूक ना हो। आज भी करोड़ों महिलाएं लैंगिक असमानता का शिकार होती हैं क्योंकि वे अपने अधिकारों से वंचित है।
सामाजिक विश्वास
रोजगार का अभाव, दुर्लभ राजनीतिक प्रतिनिधित्व, धार्मिक स्वतंत्रता का अभाव.
ऐसे हजारों साक्ष्य मौजूद है जो ऊंची आवाज में चिल्ला कर कहते हैं कि जितने भी धार्मिक मान्यताएं हैं, अधिकतर वे महिलाओं पर लागू होते हैं।
पुरानी प्रथाएं
भारत में लैंगिक असमानता का प्रभाव (effects of gender inequality in india), सीमित रोजगार, दूषित मानसिकता का पीढ़ी दर पीढ़ी विकास.
एक उम्र के बाद यदि लोगों के धारणाओं में परिवर्तन नहीं आया, तो वह जीवन भर उसी विचार को लिए जीते रहेंगे और अपने आने वाली पीढ़ी को भी वही शिक्षा देंगे। इस तरह लैंगिक असमानता पीढ़ी दर पीढ़ी फैलती है।
आर्थिक निर्भरता
ना के बराबर स्वतंत्रता और सीमित रोजगार होने के कारण अधिकतर महिलाओं को अपने परिवार वालों पर अधिक निर्भर होना पड़ता है, जिसके कारण वे हमेशा दबाव महसूस करती हैं।
राजनिति में दुर्लब अवसर
राजनीति में महिलाओं की प्रधानता कई लोगों को रास नहीं आती है। बहुत ही मुश्किल से यदि कोई महिला राजनीति के बड़े पद पर पहुंच भी जाए, तो दूषित मानसिकता वाले लोग उनकी आलोचना करने से पीछे नहीं हटते हैं।
खेल जगत में कम महत्व
विज्ञान क्षेत्र में कठिन प्रवेश, घरेलू हिंसा का शिकार, समाजिक समस्याएं, सीमित स्वतंत्रता, मनोरंजन जगत में पक्षपात, लैंगिक असमानता को भारत में कम करने के उपाय how to reduce gender inequality in india, महिला सशक्तिकरण, सरकारी योजनाएं.
बीतते समय के साथ सरकार भी कई योजनाएं बेटियों के पक्ष में लाती रहती है। ‘ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ‘ योजना जैसे कई थीम्स लैंगिक समानता को बढ़ावा देती हैं और यह एक बहुत अच्छा कदम है।
परंपरागत धार्मिक विचारधारा
बच्चियों के जन्म पर आर्थिक सहायता, बड़े पदों पर नियुक्ति, कानूनी व्यवस्थाओं का कड़ाई से पालन, शिक्षा पर बल.
अगर किसी बेटी को अच्छी शिक्षा प्रदान किया जाता है, तो इससे एक पूरा परिवार शिक्षित बनता है, जिससे समाज में भी साक्षरता आती है। असमानता को दूर करने के लिए महिलाओं की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।
लैंगिक समानता की जागरूकता
अपराध करने की सख्त सजा , निष्कर्ष conclusion, 1 thought on “भारत में लैंगिक असमानता (निबंध) gender inequality in india in hindi”, leave a comment cancel reply.
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Gender Equality Essay in Hindi – लिंग समानता पर निबंध
Gender Equality Essay in Hindi: समानता या गैर-भेदभाव वह राज्य है जहां हर व्यक्ति को समान अवसर और अधिकार मिलते हैं। समाज का प्रत्येक व्यक्ति समान स्थिति, अवसर और अधिकारों के लिए तरसता है। हालांकि, यह एक सामान्य अवलोकन है कि मनुष्यों के बीच बहुत भेदभाव मौजूद है। सांस्कृतिक अंतर, भौगोलिक अंतर और लिंग के कारण भेदभाव मौजूद है। लिंग पर आधारित असमानता एक ऐसी चिंता है जो पूरी दुनिया में प्रचलित है। 21 वीं सदी में भी, दुनिया भर में पुरुष और महिलाएं समान विशेषाधिकार प्राप्त नहीं करते हैं। लैंगिक समानता का अर्थ राजनीतिक, आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य पहलुओं में पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान अवसर प्रदान करना है।
Gender Equality Essay in Hindi – लिंग समानता पर निबंध

लिंग समानता का महत्व
एक राष्ट्र प्रगति कर सकता है और उच्च विकास दर तभी प्राप्त कर सकता है जब पुरुष और महिला दोनों समान अवसरों के हकदार हों। समाज में महिलाओं को अक्सर मक्का में रखा जाता है और उन्हें मजदूरी के मामले में स्वास्थ्य, शिक्षा, निर्णय लेने और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से परहेज किया जाता है।
सामाजिक संरचना जो लंबे समय से इस तरह से प्रचलित है कि लड़कियों को पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलते हैं। महिलाएं आमतौर पर परिवार में देखभाल करने वाली होती हैं। इस वजह से, महिलाएं ज्यादातर घरेलू गतिविधियों में शामिल होती हैं। उच्च शिक्षा, निर्णय लेने की भूमिका और नेतृत्वकारी भूमिकाओं में महिलाओं की कम भागीदारी है। यह लैंगिक असमानता किसी देश की विकास दर में बाधा है। जब महिलाएं कार्यबल में भाग लेती हैं तो देश की आर्थिक विकास दर बढ़ जाती है। लैंगिक समानता आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ राष्ट्र की समग्र भलाई को बढ़ाती है।
लिंग समानता कैसे मापी जाती है?
देश के समग्र विकास को निर्धारित करने में लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण कारक है। लैंगिक समानता को मापने के लिए कई सूचकांक हैं।
Gender-Related Development Index (GDI) – GDI मानव विकास सूचकांक का एक लिंग केंद्रित उपाय है। जीडीआई किसी देश की लैंगिक समानता का आकलन करने में जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और आय जैसे मापदंडों पर विचार करता है।
लिंग सशक्तीकरण उपाय (GEM) – इस उपाय में बहुत अधिक विस्तृत पहलू शामिल हैं जैसे राष्ट्रीय संसद में महिला उम्मीदवारों की तुलना में सीटों का अनुपात, आर्थिक निर्णय लेने वाली भूमिका में महिलाओं का प्रतिशत, महिला कर्मचारियों की आय का हिस्सा।
Gender Equity Index (GEI) – GEI लैंगिक असमानता के तीन मानकों पर देशों को रैंक करता है, वे हैं शिक्षा, आर्थिक भागीदारी और सशक्तिकरण। हालांकि, GEI स्वास्थ्य पैरामीटर की उपेक्षा करता है।
ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स – वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने 2006 में ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की शुरुआत की थी। यह इंडेक्स महिला नुकसान के स्तर की पहचान करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। सूचकांक जिन चार महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर विचार करता है वे हैं आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक प्राप्ति, राजनीतिक सशक्तीकरण, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता दर।
भारत में लिंग असमानता
विश्व आर्थिक मंच की लैंगिक अंतर रैंकिंग के अनुसार, भारत 149 देशों में से 108 वें स्थान पर है। यह रैंक एक प्रमुख चिंता का विषय है क्योंकि यह पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अवसरों के भारी अंतर को उजागर करता है। भारतीय समाज में लंबे समय से, सामाजिक संरचना ऐसी रही है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्णय लेने के क्षेत्रों, वित्तीय स्वतंत्रता आदि जैसे कई क्षेत्रों में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है।
एक और प्रमुख कारण, जो भारत में महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार में योगदान देता है, वह है विवाह में दहेज प्रथा। इस दहेज प्रथा के कारण ज्यादातर भारतीय परिवार लड़कियों को बोझ समझते हैं। बेटे के लिए पसंद अभी भी कायम है। लड़कियों ने उच्च शिक्षा से परहेज किया है। महिलाएं समान रोजगार के अवसरों और मजदूरी की हकदार नहीं हैं। 21 वीं सदी में, महिलाओं को अभी भी घर के प्रबंधन गतिविधियों में लिंग पसंद किया जाता है। कई महिलाओं ने परिवार की प्रतिबद्धताओं के कारण अपनी नौकरी छोड़ दी और नेतृत्व की भूमिकाओं से बाहर हो गईं। हालांकि, पुरुषों के बीच ऐसी क्रियाएं बहुत ही असामान्य हैं।
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एक राष्ट्र की समग्र भलाई और विकास के लिए, लैंगिक समानता पर उच्च स्कोर करना सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। लैंगिक समानता में कम असमानता वाले देशों ने बहुत प्रगति की है। लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने भी कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। लड़कियों को प्रोत्साहित करने के लिए कई कानून और नीतियां तैयार की जाती हैं। “बेटी बचाओ, बेटी पढाओ योजना ” (लड़की बचाओ, और लड़कियों को शिक्षित बनाओ) अभियान बालिकाओं के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए बनाया गया है। लड़कियों की सुरक्षा के लिए कई कानून भी हैं। हालाँकि, हमें महिला अधिकारों के बारे में ज्ञान फैलाने के लिए अधिक जागरूकता की आवश्यकता है। इसके अलावा, सरकार को नीतियों के सही और उचित कार्यान्वयन की जांच करने के लिए पहल करनी चाहिए।
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Project File on Gender Inequality || लैंगिक असमानता || Class 12th Sociology and hindi. Priyanshu gupta std. info. Priyanshu gupta
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